तुम लिखती रही हो जीवन ही,
तुम उधेड़ रही हो परतें,
उस रहस्य की ,
तुम समझ रही हो ,
उसकी कुटिल कलाओं को,
तुम स्वीकारने लगी हो ,
उसके आयोजन में,
हर एक दाँव को ,
तुम मुस्कुरा देती हो ,
उसके बन्धन ढ़ीले पड़ जाते हैं ,
देखोगे तुम,
वो हार जायेगा एकदिन ,
ईश्वर आज खतरे में है,
तुम जीत लोगी मृत्यु को भी ,
तुम मुस्कुराना सीख गयी हो,
जैसे मुस्काती है माँ,
बालमन की क्रीड़ाओं देखकर
तुम जीवन लिखने लगी हो,
तुम लिखती ही रहना....!
- अभिषेक शुक्ल
(शैलजा पाठक : एक बेटी की डायरी के माँ को समर्पित जीवन्त संस्मरण पर मेरी प्रतिक्रिया...एक छोटी सी कविता... !)