गुरुवार, 14 मार्च 2013

मैजिक बुक

कविता

तुम मुझे 


बचपन के सुआपंखी दिनों वाली 


मैजिक बुक की ही तरह लगती हो


जिसके चटक सफेदी से पुते पन्नों पर 


हम बनाया करते लगभग एक जैसे चित्र


भरते कुछ रंग जाने पहचाने 


और गढ़ते कहानियाँ


जो भी हम देख पाते 


स्कूल की ओर बढ़ता हुआ रामू


दूर आसमान में पतंग धकेलता मोहन


पनघट से गगरी भर ले आती मीना


किसी मोड़हीन सड़क पर 


बढ़ते जाते जादुई चित्र


कदम-दर-कदम


पन्नों पर पाँव रखकर


और कह जाते कुछ अधूरी कहानियाँ


कविता


तुम भी तो सँजोए रहती हो


शब्द- चित्र 


दिखाती हो सचल दृश्य 


मैजिक बुक की ही तरह


आखीर में तुम छोड़ जाती हो एक प्रेरणा 


सुखान्त कहानी रचने की ...!!



                                                -अभिषेक शुक्ल 

सोमवार, 11 मार्च 2013

एक कविता तुम्हारी गुलाबी देह के पन्नों पर


सुनो,

तुम कहतीं थी न



कि मै तुम्हारे लिए कवितायें नहीं लिखता 

क्या तुम्हे याद नहीं 


तुम्हारे सोलहवें जन्मदिन की 


वह धूसर शाम 


जब क्षितिज की आड़ में 


तुम्हारी अधखुली पलकों पर उगे साँवले सूरज को



चूम लिया था मैंने 

काँपते, तप्त होठों से


तब लिखा था मैंने अपना पहला छंद 


और उस दिन जब मेरे बहुत कहने पर 


डरी,सहमी,सकुचाई सी तुम 


आ पहुँची थीं गाँव के बाहर उस टूटी हवेली में


वहाँ उस रेशम सी मुलायम चट्टान पर पसरी 


तुम्हारी गुलाबी देह के हर पन्ने पर


मेरी रेंगती उँगलियों के पोरों ने 

लिखी थी कोई कविता 


और तुम्हारी रिसती, नमकीन हथेलियों ने 


चट्टान पर उग आयी दूब को 


कसकर भींच लिया था


कितनी ही कवितायें लिखीं थी मैंने 


हम दोनों ने 


प्रेम की वह भरी पूरी किताब 


होली के रंग में रंगे दुपट्टे से लिपटी 


आज भी रखी होगी 


यादों की अलमारी की किसी दराज में 


तुम पढ़ो तो सही...


बोलो ...पढोगी न...?
                                 

                              - अभिषेक शुक्ल

शनिवार, 9 मार्च 2013

कलम की तिरछी झाड़ू से

पौं फटी जब
 
दूर उस क्षितिज


संतरी होता सा आसमान


रश्मियों की 


गूँजती किलकारियाँ


पक्षियों का


कलरव गान


एक सूखी सी नदी


रेत से सने उसके 

एक जोड़ी पाँव शुष्क किनारों तले


पसर आयीं गहरी मटमैली झुर्रियाँ


उलीच रही


कल रात उगाया खारा जल


समन्दर की


निष्ठुर हथेलियों में


लो, मैने भी


बुहार दिये


कविताओं के कुछ कण


कलम की तिरछी झाड़ू से


तुम्हारे मन की


चंचल तश्तरी पर...!!


                                      -अभिषेक शुक्ल 

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

स्त्री

स्त्री !

पित्रसत्तात्मक समाज की झूलती अरगनी पर 

टँगी मैली चादर सी 

जो कसी है मर्यादाओं,

रीति रिवाजों और कोरी सभ्यताओं की 

निष्ठुर चिमटियों से 

जिस पर फेंके जाते रहे ताश के पत्ते,

नीलाम होतीं रहीं तमाम द्रोपदियाँ, 

हर शाम सजतीं रहीं महफिलें,

पड़तीं आवारा पान की पीकें,

और धँसते रहे शराब के गिलास उन पर,

रात को वे मैली की जातीं रहीं


मर्दों के बिस्तरों पर


अगली ही सुबह चितकबरी चादरें


टांग दी जातीं वापस अरगनियों पर


चिलचिलाती रिश्तों की धूप में


फड़फड़ाते रहने के लिए ...!!


                                         - अभिषेक शुक्ल 

मंगलवार, 5 मार्च 2013

मै बनाऊँ एक सुराख खोपड़ी में

मै बनाऊँ एक सुराख खोपड़ी में

तुम लेकर आओ एक कीप 

और भर लाओ ज्ञान 

वेद,ऋचाओं,उपनिषदों और हिमालय की कन्दराओं का 

तुम उड़ेल दो समूचे ब्रम्हाण्ड का ज्ञान 

मेरे मस्तिष्क के सभी कोटरों में

ताकि मै जान सकूँ 

ज्ञान होना पर्याप्त नहीं

ज्ञान होने का विषय नहीं

ज्ञान विषय है अनुभूति का

ज्ञान के पार भी है एक संसार

निर्वात का


ज्ञान


हो सकता है माध्यम


उस निर्वात तक पहुँचने का

जोकि भरा है खालीपन से


विशुद्ध


खालीपन से...!!


                                     -अभिषेक शुक्ल