कल बीआरसी पर बीते छः महीनों से चला आ रहा औपचारिक शैक्षिक प्रशिक्षण खत्म हुआ...ये भी सच है कि प्रशिक्षण पूरा होने की खुशी से ज्यादा साथियों से बिछुड़ने का ग़म है...इस थोड़े से ही वक़्त में हमने कई जि़न्दगियों को जिया है और जाना भी है कि दोस्ती के असली मायने क्या होते हैं...लेकिन कल दोस्तों से दूर जाते समय मैने देखा...कि विदाई के मामले में आँखें बहुत वफादार नहीं होतीं...बहुत रोकने पर भी गर्म नमकीन पानी छलका देती हैं ...विदाई की धूसर शाम किसी उफनायी नदी की प्रचण्ड लहरों की तरह दोस्तों से मुलाकातों के उस दौर को भी अपने साथ बहा कर ले गयी...लेकिन छोड़ गयी बोलती तस्वीरों के कुछ सुरीले कोलाज... रंगबिरंगी यादें और मिलन की अधूरी आस....।
कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के...तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर...
शुक्रवार, 28 अगस्त 2015
गुरुवार, 27 अगस्त 2015
विदाई
ठीक ही कहा था उस कवि ने कि " विदा ...शब्दकोश का सबसे रुँआसा शब्द है..."
(विदाई से पहले)
मुझे याद है
तुम्हारी मौजू़दगी
खारिज़ करती रही है
जोड़ के सभी सिद्धान्तों को
जो व्यक्त करते थे संख्याओं में
तुम्हारा,हमारा,सबका होना
जबकि हम एक थे
तुम्हारे साथ
मैने देखा है तुम्हारी बेलौस हँसी की कलाई थाम
वक्त का भाप बनकर उड़ जाना
और
यकीन मानो मै विस्मृत कर चुका हूँ
उन कैलेंन्डरों को पढ़ने की कला
जो उदास दिनों का ब्योरा रखते थे
(आज विदाई के बाद)
आज विरहणी सांझ की धूसर पीठ पर
मैने नमकीन समन्दर देखे हैं
मैने देखी है पनीली आँखों में मिलन की आस
विछोह की छटपटाहट देखी है मैने
मैने देखा है काँपती हथेलियों को
जिन्हे रुख़्सतग़ी कत्तई गवारा नहीं
मैने देखा है थरथराते होठों को
जिनकी चीख में है एक तुम्हारा ही नाम
अब जबकि नहीं हो तुम मेरे पास
सोंचता हूँ,कि खुरच कर ले आऊँ
तुम्हारी बची हुयी स्मृतियों को
अतीत की नम दीवारों से
(आज विदाई की तस्वीरें जुटाते साथियों को देखकर ऐसा लगा कि उनके साथ बीते दिनों में दर्ज़ हमारी और उन सबकी मौजूदगी की आखिरी गवाह ये तस्वीरें बनेंगी ...2 साल पहले लिखी मेरी ही एक कविता के बीचोंबीच लिखी ये पंक्तियां "छिटक कर बिखर गयीं/कुछ तस्वीरों के कोलाज/तुम्हारी कुल जमा जिन्दगी होती है" तुम पर एकदम सटीक बैठती हैं)
(अभिषेक शुक्ल)
http://shuklaabhishek147.blogspot.in/2013/05/blog-post_31.html?m=1
(विदाई से पहले)
मुझे याद है
तुम्हारी मौजू़दगी
खारिज़ करती रही है
जोड़ के सभी सिद्धान्तों को
जो व्यक्त करते थे संख्याओं में
तुम्हारा,हमारा,सबका होना
जबकि हम एक थे
तुम्हारे साथ
मैने देखा है तुम्हारी बेलौस हँसी की कलाई थाम
वक्त का भाप बनकर उड़ जाना
और
यकीन मानो मै विस्मृत कर चुका हूँ
उन कैलेंन्डरों को पढ़ने की कला
जो उदास दिनों का ब्योरा रखते थे
(आज विदाई के बाद)
आज विरहणी सांझ की धूसर पीठ पर
मैने नमकीन समन्दर देखे हैं
मैने देखी है पनीली आँखों में मिलन की आस
विछोह की छटपटाहट देखी है मैने
मैने देखा है काँपती हथेलियों को
जिन्हे रुख़्सतग़ी कत्तई गवारा नहीं
मैने देखा है थरथराते होठों को
जिनकी चीख में है एक तुम्हारा ही नाम
अब जबकि नहीं हो तुम मेरे पास
सोंचता हूँ,कि खुरच कर ले आऊँ
तुम्हारी बची हुयी स्मृतियों को
अतीत की नम दीवारों से
(आज विदाई की तस्वीरें जुटाते साथियों को देखकर ऐसा लगा कि उनके साथ बीते दिनों में दर्ज़ हमारी और उन सबकी मौजूदगी की आखिरी गवाह ये तस्वीरें बनेंगी ...2 साल पहले लिखी मेरी ही एक कविता के बीचोंबीच लिखी ये पंक्तियां "छिटक कर बिखर गयीं/कुछ तस्वीरों के कोलाज/तुम्हारी कुल जमा जिन्दगी होती है" तुम पर एकदम सटीक बैठती हैं)
(अभिषेक शुक्ल)
http://shuklaabhishek147.blogspot.in/2013/05/blog-post_31.html?m=1
शुक्रवार, 31 जुलाई 2015
वह गोताखोर बनना चाहती थी
मेरे फेसबुक परिवार की अप्रतिम कवियित्री शैलजा पाठक का सृजन अद्दभुत रहा है, कई बार उनकी रचनाओं को पढ़कर निःशब्द रह जाता हूँ, प्रसंशा के लिए शब्द खोखले ही साबित होते रहे हैं, गहरे उतर कर लिखी गयी उनकी रचनाएँ बहुत गूढ़ अर्थ लिए होती हैं... Shailja Pathak को स्नेह सहित समर्पित मेरी कुछ पंक्तियाँ, बहुत कुछ कह सकने की उम्मीद लिए कुछ कह सकने का मेरा छोटा सा प्रयास है ....कवियित्री को मेरी शुभकामनायें.............
मुझे बताया था किसी ने
कि बचपन से ही वह गोताखोर बनना चाहती थी
बिल्कुल जलपरी सी दीखती थी वह
गहरे उतर जाने का हुनर तो उसे बखूबी आता था
समन्दर में उतरने से पहले
वह सोख लेती थी अपने हिस्से का समूचा आसमान
और निकल पड़ती थी एक अंतहीन यात्रा पर
वह जमा किया करती सुनहरी मछलियाँ,
समन्दर की सबसे कीमती सीपियाँ
और कुछ चमकते हुए सफ़ेद मोती
उन दिनों समन्दर समृद्ध था
उसके होने पर इतराता था
आज उदास है समन्दर
वह छोड़ आयी है समन्दर को
अकेले ही सिमटते रहने के लिए
लेकिन साथ ले आयी है वो
गहरे उतर जाने का हुनर
आज भी वह सोख लेती है
दूर-दूर तक फैली पड़ी संवेदनाएं,
उदासियों के कुछ सूखे हुए पत्ते ,
चारों ओर बिखरे पड़े मुरझाये फूल ,
वह गहरे... और गहरे उतरती जाती है
भरकर लाती है अँजुरी-भर मुस्कान
संग लेकर आती है सृजन के कुछ मोती अनमोल
और जलते हुए आशाओं के दिये
जगत के उस पार से...!!
-अभिषेक शुक्ल
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