शनिवार, 9 मार्च 2013

कलम की तिरछी झाड़ू से

पौं फटी जब
 
दूर उस क्षितिज


संतरी होता सा आसमान


रश्मियों की 


गूँजती किलकारियाँ


पक्षियों का


कलरव गान


एक सूखी सी नदी


रेत से सने उसके 

एक जोड़ी पाँव शुष्क किनारों तले


पसर आयीं गहरी मटमैली झुर्रियाँ


उलीच रही


कल रात उगाया खारा जल


समन्दर की


निष्ठुर हथेलियों में


लो, मैने भी


बुहार दिये


कविताओं के कुछ कण


कलम की तिरछी झाड़ू से


तुम्हारे मन की


चंचल तश्तरी पर...!!


                                      -अभिषेक शुक्ल