पौं फटी जब
दूर उस क्षितिज
संतरी होता सा आसमान
रश्मियों की
गूँजती किलकारियाँ
पक्षियों का
कलरव गान
एक सूखी सी नदी
रेत से सने उसके
एक जोड़ी पाँव शुष्क किनारों तले
पसर आयीं गहरी मटमैली झुर्रियाँ
उलीच रही
कल रात उगाया खारा जल
समन्दर की
निष्ठुर हथेलियों में
लो, मैने भी
बुहार दिये
कविताओं के कुछ कण
कलम की तिरछी झाड़ू से
तुम्हारे मन की
चंचल तश्तरी पर...!!
-अभिषेक शुक्ल
दूर उस क्षितिज
संतरी होता सा आसमान
रश्मियों की
गूँजती किलकारियाँ
पक्षियों का
कलरव गान
एक सूखी सी नदी
रेत से सने उसके
एक जोड़ी पाँव शुष्क किनारों तले
पसर आयीं गहरी मटमैली झुर्रियाँ
उलीच रही
कल रात उगाया खारा जल
समन्दर की
निष्ठुर हथेलियों में
लो, मैने भी
बुहार दिये
कविताओं के कुछ कण
कलम की तिरछी झाड़ू से
तुम्हारे मन की
चंचल तश्तरी पर...!!
-अभिषेक शुक्ल