कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के...तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर...
मंगलवार, 26 नवंबर 2013
ईश्वर आज खतरे में है...
तुम लिखती रही हो जीवन ही,
तुम उधेड़ रही हो परतें,
उस रहस्य की ,
तुम समझ रही हो ,
उसकी कुटिल कलाओं को,
तुम स्वीकारने लगी हो ,
उसके आयोजन में,
हर एक दाँव को ,
तुम मुस्कुरा देती हो ,
उसके बन्धन ढ़ीले पड़ जाते हैं ,
देखोगे तुम,
वो हार जायेगा एकदिन ,
जैसे मुस्काती है माँ,
बालमन की क्रीड़ाओं देखकर
तुम जीवन लिखने लगी हो,
तुम लिखती ही रहना....!
शुक्रवार, 31 मई 2013
तुम्हारी दिलचस्पी
शब्दों में है
बेतरतीब उछाले गये शब्दों में
तुम खोजते रहे हो
प्रेम !
अनिश्चित क्रम में लगे
ताश के पत्ते
तुम्हे आकर्षित करते रहे हैं
तुम मान बैठते हो
उन्हें अपनी नियति
फेंटे जाने की औपचारिकता के बाद,
छिटक कर बिखर गयीं
कुछ तस्वीरों के कोलाज
तुम्हारी कुल जमा
जिन्दगी होती है,
और तुम भूल जाते हो
दो तस्वीरों की अनिश्चित
जमावट के बीचोंबीच
अनसुलझी पहेलियों को
बुदबुदाता हुया एक मन,
शब्दों को जोड़ती हुयी
मौन की एक अनचीन्ही रेखा
पर्याप्त है
आकाश की देह पर
प्रेम लिखने को !
- अभिषेक शुक्ल
शब्दों में है
बेतरतीब उछाले गये शब्दों में
तुम खोजते रहे हो
प्रेम !
अनिश्चित क्रम में लगे
ताश के पत्ते
तुम्हे आकर्षित करते रहे हैं
तुम मान बैठते हो
उन्हें अपनी नियति
फेंटे जाने की औपचारिकता के बाद,
छिटक कर बिखर गयीं
कुछ तस्वीरों के कोलाज
तुम्हारी कुल जमा
जिन्दगी होती है,
और तुम भूल जाते हो
दो तस्वीरों की अनिश्चित
जमावट के बीचोंबीच
अनसुलझी पहेलियों को
बुदबुदाता हुया एक मन,
शब्दों को जोड़ती हुयी
मौन की एक अनचीन्ही रेखा
पर्याप्त है
आकाश की देह पर
प्रेम लिखने को !
- अभिषेक शुक्ल
गुरुवार, 14 मार्च 2013
मैजिक बुक
कविता
तुम मुझे
बचपन के सुआपंखी दिनों वाली
मैजिक बुक की ही तरह लगती हो
जिसके चटक सफेदी से पुते पन्नों पर
हम बनाया करते लगभग एक जैसे चित्र
भरते कुछ रंग जाने पहचाने
और गढ़ते कहानियाँ
जो भी हम देख पाते
स्कूल की ओर बढ़ता हुआ रामू
दूर आसमान में पतंग धकेलता मोहन
पनघट से गगरी भर ले आती मीना
किसी मोड़हीन सड़क पर
बढ़ते जाते जादुई चित्र
कदम-दर-कदम
पन्नों पर पाँव रखकर
और कह जाते कुछ अधूरी कहानियाँ
कविता
तुम भी तो सँजोए रहती हो
शब्द- चित्र
दिखाती हो सचल दृश्य
मैजिक बुक की ही तरह
आखीर में तुम छोड़ जाती हो एक प्रेरणा
सुखान्त कहानी रचने की ...!!
-अभिषेक शुक्ल
तुम मुझे
बचपन के सुआपंखी दिनों वाली
मैजिक बुक की ही तरह लगती हो
जिसके चटक सफेदी से पुते पन्नों पर
हम बनाया करते लगभग एक जैसे चित्र
भरते कुछ रंग जाने पहचाने
और गढ़ते कहानियाँ
जो भी हम देख पाते
स्कूल की ओर बढ़ता हुआ रामू
दूर आसमान में पतंग धकेलता मोहन
पनघट से गगरी भर ले आती मीना
किसी मोड़हीन सड़क पर
बढ़ते जाते जादुई चित्र
कदम-दर-कदम
पन्नों पर पाँव रखकर
और कह जाते कुछ अधूरी कहानियाँ
कविता
तुम भी तो सँजोए रहती हो
शब्द- चित्र
दिखाती हो सचल दृश्य
मैजिक बुक की ही तरह
आखीर में तुम छोड़ जाती हो एक प्रेरणा
सुखान्त कहानी रचने की ...!!
-अभिषेक शुक्ल
सोमवार, 11 मार्च 2013
एक कविता तुम्हारी गुलाबी देह के पन्नों पर
सुनो,
तुम कहतीं थी न
कि मै तुम्हारे लिए कवितायें नहीं लिखता
क्या तुम्हे याद नहीं
तुम्हारे सोलहवें जन्मदिन की
वह धूसर शाम
जब क्षितिज की आड़ में
तुम्हारी अधखुली पलकों पर उगे साँवले सूरज को
चूम लिया था मैंने
काँपते, तप्त होठों से
तब लिखा था मैंने अपना पहला छंद
और उस दिन जब मेरे बहुत कहने पर
डरी,सहमी,सकुचाई सी तुम
आ पहुँची थीं गाँव के बाहर उस टूटी हवेली में
वहाँ उस रेशम सी मुलायम चट्टान पर पसरी
तुम्हारी गुलाबी देह के हर पन्ने पर
मेरी रेंगती उँगलियों के पोरों ने
लिखी थी कोई कविता
और तुम्हारी रिसती, नमकीन हथेलियों ने
चट्टान पर उग आयी दूब को
कसकर भींच लिया था
कितनी ही कवितायें लिखीं थी मैंने
हम दोनों ने
प्रेम की वह भरी पूरी किताब
होली के रंग में रंगे दुपट्टे से लिपटी
आज भी रखी होगी
यादों की अलमारी की किसी दराज में
तुम पढ़ो तो सही...
बोलो ...पढोगी न...?
- अभिषेक शुक्ल
शनिवार, 9 मार्च 2013
कलम की तिरछी झाड़ू से
पौं फटी जब
दूर उस क्षितिज
संतरी होता सा आसमान
रश्मियों की
गूँजती किलकारियाँ
पक्षियों का
कलरव गान
एक सूखी सी नदी
रेत से सने उसके
एक जोड़ी पाँव शुष्क किनारों तले
पसर आयीं गहरी मटमैली झुर्रियाँ
उलीच रही
कल रात उगाया खारा जल
समन्दर की
निष्ठुर हथेलियों में
लो, मैने भी
बुहार दिये
कविताओं के कुछ कण
कलम की तिरछी झाड़ू से
तुम्हारे मन की
चंचल तश्तरी पर...!!
-अभिषेक शुक्ल
दूर उस क्षितिज
संतरी होता सा आसमान
रश्मियों की
गूँजती किलकारियाँ
पक्षियों का
कलरव गान
एक सूखी सी नदी
रेत से सने उसके
एक जोड़ी पाँव शुष्क किनारों तले
पसर आयीं गहरी मटमैली झुर्रियाँ
उलीच रही
कल रात उगाया खारा जल
समन्दर की
निष्ठुर हथेलियों में
लो, मैने भी
बुहार दिये
कविताओं के कुछ कण
कलम की तिरछी झाड़ू से
तुम्हारे मन की
चंचल तश्तरी पर...!!
-अभिषेक शुक्ल
शुक्रवार, 8 मार्च 2013
स्त्री
स्त्री !
पित्रसत्तात्मक समाज की झूलती अरगनी पर
टँगी मैली चादर सी
जो कसी है मर्यादाओं,
रीति रिवाजों और कोरी सभ्यताओं की
निष्ठुर चिमटियों से
जिस पर फेंके जाते रहे ताश के पत्ते,
नीलाम होतीं रहीं तमाम द्रोपदियाँ,
हर शाम सजतीं रहीं महफिलें,
पड़तीं आवारा पान की पीकें,
और धँसते रहे शराब के गिलास उन पर,
रात को वे मैली की जातीं रहीं
मर्दों के बिस्तरों पर
अगली ही सुबह चितकबरी चादरें
टांग दी जातीं वापस अरगनियों पर
चिलचिलाती रिश्तों की धूप में
फड़फड़ाते रहने के लिए ...!!
- अभिषेक शुक्ल
पित्रसत्तात्मक समाज की झूलती अरगनी पर
टँगी मैली चादर सी
जो कसी है मर्यादाओं,
रीति रिवाजों और कोरी सभ्यताओं की
निष्ठुर चिमटियों से
जिस पर फेंके जाते रहे ताश के पत्ते,
नीलाम होतीं रहीं तमाम द्रोपदियाँ,
हर शाम सजतीं रहीं महफिलें,
पड़तीं आवारा पान की पीकें,
और धँसते रहे शराब के गिलास उन पर,
रात को वे मैली की जातीं रहीं
मर्दों के बिस्तरों पर
अगली ही सुबह चितकबरी चादरें
टांग दी जातीं वापस अरगनियों पर
चिलचिलाती रिश्तों की धूप में
फड़फड़ाते रहने के लिए ...!!
- अभिषेक शुक्ल
मंगलवार, 5 मार्च 2013
मै बनाऊँ एक सुराख खोपड़ी में
मै बनाऊँ एक सुराख खोपड़ी में
तुम लेकर आओ एक कीप
और भर लाओ ज्ञान
वेद,ऋचाओं,उपनिषदों और हिमालय की कन्दराओं का
तुम उड़ेल दो समूचे ब्रम्हाण्ड का ज्ञान
मेरे मस्तिष्क के सभी कोटरों में
ताकि मै जान सकूँ
ज्ञान होना पर्याप्त नहीं
ज्ञान होने का विषय नहीं
ज्ञान विषय है अनुभूति का
ज्ञान के पार भी है एक संसार
निर्वात का
ज्ञान
हो सकता है माध्यम
उस निर्वात तक पहुँचने का
जोकि भरा है खालीपन से
विशुद्ध
खालीपन से...!!
-अभिषेक शुक्ल
तुम लेकर आओ एक कीप
और भर लाओ ज्ञान
वेद,ऋचाओं,उपनिषदों और हिमालय की कन्दराओं का
तुम उड़ेल दो समूचे ब्रम्हाण्ड का ज्ञान
मेरे मस्तिष्क के सभी कोटरों में
ताकि मै जान सकूँ
ज्ञान होना पर्याप्त नहीं
ज्ञान होने का विषय नहीं
ज्ञान विषय है अनुभूति का
ज्ञान के पार भी है एक संसार
निर्वात का
ज्ञान
हो सकता है माध्यम
उस निर्वात तक पहुँचने का
जोकि भरा है खालीपन से
विशुद्ध
खालीपन से...!!
-अभिषेक शुक्ल
रविवार, 24 फ़रवरी 2013
तीन वर्ष पूर्व, प्रिय के जन्मदिवस पर लिखी गयी कविता....मेरी नयी कलम से.. मेरी प्रथम कृति....)
आयु के प्रत्येक प्रहर में,
जीवन की हर एक डगर में,
फूलों - सा मुस्काती रहना,
तुम गीत खुशी के गाती रहना !
पतझड़ में बनकर हरियाली,
फूलों से झुकती हुयी डाली,
सारी बगिया महकाती रहना,
तुम गीत खुशी के गाती रहना !
ह्रदय के निर्जन वन में,
मन के सूने आँगन में,
स्मृति - पुष्प खिलाती रहना,
तुम गीत खुशी के गाती रहना !
अंबुज - दल सम नेत्रों से,
अरुण वर्ण इन अधरों से,
प्रेम सुधा छलकाती रहना,
तुम गीत खुशी के गाती रहना !
प्रिय, तुम श्यामल सुस्मिति से,
नयनों की झिलमिल ज्योति से,
रजत - रागिनी बिखराती रहना,
तुम गीत खुशी के गाती रहना !!
- अभिषेक शुक्ल
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