शुक्रवार, 31 मई 2013

तुम्हारी दिलचस्पी 
शब्दों में है
बेतरतीब उछाले गये शब्दों में
तुम खोजते रहे हो 
प्रेम !

अनिश्चित क्रम में लगे 
ताश के पत्ते 
तुम्हे आकर्षित करते रहे हैं
तुम मान बैठते हो 
उन्हें अपनी नियति
फेंटे जाने की औपचारिकता के बाद,

छिटक कर बिखर गयीं
कुछ तस्वीरों के कोलाज
तुम्हारी कुल जमा
जिन्दगी होती है,

और तुम भूल जाते हो
दो तस्वीरों की अनिश्चित
जमावट के बीचोंबीच
अनसुलझी पहेलियों को
बुदबुदाता हुया एक मन,

शब्दों को जोड़ती हुयी
मौन की एक अनचीन्ही रेखा
पर्याप्त है
आकाश की देह पर
प्रेम लिखने को !

- अभिषेक शुक्ल