गुरुवार, 30 मार्च 2023

एक फरेबी इंतजार की जद में ..

वक्त की बेजान हथेलियों से

रिसती है

एक बेसबब शाम

और तुम समेट लेते हो

तुम्हारा प्रेम

एक फरेबी इंतजार की जद में ,

तब तुम टांक देते हो अपनी आँखें

पगडण्डी के मुहाने पर खड़े

एक सूखे दरख़्त की टहनी से

और दर्ज कर देते हो अपने कान

दूर पड़ी भुरभुरी रेत पर

किसी आदिम पदचाप के फीकेपन

को सुनने के लिए,

सुर्ख पीले पंखों वाली चिड़िया

अमलतास के होठों पर रख

अपना चुम्बन

ठहरी किसी नदी को देख

उदास हो जाती है,

दूर पश्चिम की ओर से

जुगनुओं की एक लम्बी फ़ौज

अपनी मुट्ठियों में रौशनी कैदकर

लौट आती है

रात के अनजान सफ़र के लिए,

उसी सूखे दरख़्त ने

सहेज कर रखा

छाँव का एक शीतल टुकड़ा

हवा में उछाल दिया,

पिछली रात का जागा हुआ समन्दर

आज प्यासा ही सो जाएगा

एक फरेबी इंतजार की जद में ...!
                         
                     - अभिषेक शुक्ल

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

बीते लम्हों की खनक

कल बीआरसी पर बीते छः महीनों से चला आ रहा औपचारिक शैक्षिक प्रशिक्षण खत्म हुआ...ये भी सच है कि प्रशिक्षण पूरा होने की खुशी से ज्यादा साथियों से बिछुड़ने का ग़म है...इस थोड़े से ही वक़्त में हमने कई जि़न्दगियों को जिया है और जाना भी है कि दोस्ती के असली मायने क्या होते हैं...लेकिन कल दोस्तों से दूर जाते समय मैने देखा...कि विदाई के मामले में आँखें बहुत वफादार नहीं होतीं...बहुत रोकने पर भी गर्म नमकीन पानी छलका देती हैं  ...विदाई की धूसर शाम किसी उफनायी नदी की प्रचण्ड लहरों की तरह दोस्तों से मुलाकातों के उस दौर को भी अपने साथ बहा कर ले गयी...लेकिन छोड़ गयी बोलती तस्वीरों के कुछ सुरीले कोलाज... रंगबिरंगी यादें और मिलन की अधूरी आस....।

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

विदाई

ठीक ही कहा था उस कवि ने कि " विदा ...शब्दकोश का सबसे रुँआसा शब्द है..."

(विदाई से पहले)

मुझे याद है
तुम्हारी मौजू़दगी
खारिज़ करती रही है
जोड़ के सभी सिद्धान्तों को
जो व्यक्त करते थे संख्याओं में
तुम्हारा,हमारा,सबका होना
जबकि हम एक थे

तुम्हारे साथ
मैने देखा है तुम्हारी बेलौस हँसी की कलाई थाम
वक्त का भाप बनकर उड़ जाना
और
यकीन मानो मै विस्मृत कर चुका हूँ
उन कैलेंन्डरों को पढ़ने की कला
जो उदास दिनों का ब्योरा रखते थे

(आज विदाई के बाद)

आज विरहणी सांझ की धूसर पीठ पर
मैने नमकीन समन्दर देखे हैं
मैने देखी है पनीली आँखों में मिलन की आस
विछोह की छटपटाहट देखी है मैने
मैने देखा है काँपती हथेलियों को
जिन्हे रुख़्सतग़ी कत्तई गवारा नहीं
मैने देखा है थरथराते होठों को
जिनकी चीख में है एक तुम्हारा ही नाम

अब जबकि नहीं हो तुम मेरे पास
सोंचता हूँ,कि खुरच कर ले आऊँ
तुम्हारी बची हुयी स्मृतियों को
अतीत की नम दीवारों से

(आज विदाई की तस्वीरें जुटाते साथियों को देखकर ऐसा लगा कि उनके साथ बीते दिनों में दर्ज़ हमारी और उन सबकी मौजूदगी की आखिरी गवाह ये तस्वीरें बनेंगी ...2 साल पहले लिखी मेरी ही एक कविता के बीचोंबीच लिखी ये पंक्तियां "छिटक कर बिखर गयीं/कुछ तस्वीरों के कोलाज/तुम्हारी कुल जमा जिन्दगी होती है" तुम पर एकदम सटीक बैठती हैं)

(अभिषेक शुक्ल)

http://shuklaabhishek147.blogspot.in/2013/05/blog-post_31.html?m=1

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

वह गोताखोर बनना चाहती थी

मेरे फेसबुक परिवार की अप्रतिम कवियित्री शैलजा पाठक  का सृजन अद्दभुत रहा है, कई बार उनकी रचनाओं को पढ़कर निःशब्द रह जाता हूँ, प्रसंशा के लिए शब्द खोखले ही साबित होते रहे हैं, गहरे उतर कर लिखी गयी उनकी रचनाएँ बहुत गूढ़ अर्थ लिए होती हैं... Shailja Pathak  को स्नेह सहित समर्पित मेरी कुछ पंक्तियाँ, बहुत कुछ कह सकने की उम्मीद लिए कुछ कह सकने का मेरा छोटा सा प्रयास है ....कवियित्री को मेरी शुभकामनायें.............

मुझे बताया था किसी ने
कि बचपन से ही वह गोताखोर बनना चाहती थी
बिल्कुल जलपरी सी दीखती थी वह
गहरे उतर जाने का हुनर तो उसे बखूबी आता था

समन्दर में उतरने से पहले
वह सोख लेती थी अपने हिस्से का समूचा आसमान
और निकल पड़ती थी एक अंतहीन यात्रा पर

वह जमा किया करती सुनहरी मछलियाँ,
समन्दर की सबसे कीमती सीपियाँ
और कुछ चमकते हुए सफ़ेद मोती

उन दिनों समन्दर समृद्ध था
उसके होने पर इतराता था

आज उदास है समन्दर
वह छोड़ आयी है समन्दर को
अकेले ही सिमटते रहने के लिए

लेकिन साथ ले आयी है वो
गहरे उतर जाने का हुनर

आज भी वह सोख लेती है
दूर-दूर तक फैली पड़ी संवेदनाएं,
उदासियों के कुछ सूखे हुए पत्ते ,
चारों ओर बिखरे पड़े मुरझाये फूल ,

वह गहरे... और गहरे उतरती जाती है
भरकर लाती है अँजुरी-भर मुस्कान
संग लेकर आती है सृजन के कुछ मोती अनमोल
और जलते हुए आशाओं के दिये
जगत के उस पार से...!!

                                         -अभिषेक शुक्ल

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

ईश्वर आज खतरे में है...

तुम लिखती रही हो जीवन ही,

तुम उधेड़ रही हो परतें,

उस रहस्य की ,

तुम समझ रही हो ,

उसकी कुटिल कलाओं को,

तुम स्वीकारने लगी हो ,

उसके आयोजन में,

हर एक दाँव को ,

तुम मुस्कुरा देती हो ,

उसके बन्धन ढ़ीले पड़ जाते हैं ,

देखोगे तुम,

वो हार जायेगा एकदिन , 

ईश्वर आज खतरे में है,

तुम जीत लोगी मृत्यु को भी ,

तुम मुस्कुराना सीख गयी हो,

जैसे मुस्काती है माँ,

बालमन की क्रीड़ाओं देखकर 

तुम जीवन लिखने लगी हो,

तुम लिखती ही रहना....!

                    - अभिषेक शुक्ल 


(शैलजा पाठक : एक बेटी की डायरी के माँ को समर्पित जीवन्त संस्मरण पर मेरी प्रतिक्रिया...एक छोटी सी कविता... !)

शुक्रवार, 31 मई 2013

तुम्हारी दिलचस्पी 
शब्दों में है
बेतरतीब उछाले गये शब्दों में
तुम खोजते रहे हो 
प्रेम !

अनिश्चित क्रम में लगे 
ताश के पत्ते 
तुम्हे आकर्षित करते रहे हैं
तुम मान बैठते हो 
उन्हें अपनी नियति
फेंटे जाने की औपचारिकता के बाद,

छिटक कर बिखर गयीं
कुछ तस्वीरों के कोलाज
तुम्हारी कुल जमा
जिन्दगी होती है,

और तुम भूल जाते हो
दो तस्वीरों की अनिश्चित
जमावट के बीचोंबीच
अनसुलझी पहेलियों को
बुदबुदाता हुया एक मन,

शब्दों को जोड़ती हुयी
मौन की एक अनचीन्ही रेखा
पर्याप्त है
आकाश की देह पर
प्रेम लिखने को !

- अभिषेक शुक्ल

गुरुवार, 14 मार्च 2013

मैजिक बुक

कविता

तुम मुझे 


बचपन के सुआपंखी दिनों वाली 


मैजिक बुक की ही तरह लगती हो


जिसके चटक सफेदी से पुते पन्नों पर 


हम बनाया करते लगभग एक जैसे चित्र


भरते कुछ रंग जाने पहचाने 


और गढ़ते कहानियाँ


जो भी हम देख पाते 


स्कूल की ओर बढ़ता हुआ रामू


दूर आसमान में पतंग धकेलता मोहन


पनघट से गगरी भर ले आती मीना


किसी मोड़हीन सड़क पर 


बढ़ते जाते जादुई चित्र


कदम-दर-कदम


पन्नों पर पाँव रखकर


और कह जाते कुछ अधूरी कहानियाँ


कविता


तुम भी तो सँजोए रहती हो


शब्द- चित्र 


दिखाती हो सचल दृश्य 


मैजिक बुक की ही तरह


आखीर में तुम छोड़ जाती हो एक प्रेरणा 


सुखान्त कहानी रचने की ...!!



                                                -अभिषेक शुक्ल