शुक्रवार, 8 मार्च 2013

स्त्री

स्त्री !

पित्रसत्तात्मक समाज की झूलती अरगनी पर 

टँगी मैली चादर सी 

जो कसी है मर्यादाओं,

रीति रिवाजों और कोरी सभ्यताओं की 

निष्ठुर चिमटियों से 

जिस पर फेंके जाते रहे ताश के पत्ते,

नीलाम होतीं रहीं तमाम द्रोपदियाँ, 

हर शाम सजतीं रहीं महफिलें,

पड़तीं आवारा पान की पीकें,

और धँसते रहे शराब के गिलास उन पर,

रात को वे मैली की जातीं रहीं


मर्दों के बिस्तरों पर


अगली ही सुबह चितकबरी चादरें


टांग दी जातीं वापस अरगनियों पर


चिलचिलाती रिश्तों की धूप में


फड़फड़ाते रहने के लिए ...!!


                                         - अभिषेक शुक्ल