सोमवार, 11 मार्च 2013

एक कविता तुम्हारी गुलाबी देह के पन्नों पर


सुनो,

तुम कहतीं थी न



कि मै तुम्हारे लिए कवितायें नहीं लिखता 

क्या तुम्हे याद नहीं 


तुम्हारे सोलहवें जन्मदिन की 


वह धूसर शाम 


जब क्षितिज की आड़ में 


तुम्हारी अधखुली पलकों पर उगे साँवले सूरज को



चूम लिया था मैंने 

काँपते, तप्त होठों से


तब लिखा था मैंने अपना पहला छंद 


और उस दिन जब मेरे बहुत कहने पर 


डरी,सहमी,सकुचाई सी तुम 


आ पहुँची थीं गाँव के बाहर उस टूटी हवेली में


वहाँ उस रेशम सी मुलायम चट्टान पर पसरी 


तुम्हारी गुलाबी देह के हर पन्ने पर


मेरी रेंगती उँगलियों के पोरों ने 

लिखी थी कोई कविता 


और तुम्हारी रिसती, नमकीन हथेलियों ने 


चट्टान पर उग आयी दूब को 


कसकर भींच लिया था


कितनी ही कवितायें लिखीं थी मैंने 


हम दोनों ने 


प्रेम की वह भरी पूरी किताब 


होली के रंग में रंगे दुपट्टे से लिपटी 


आज भी रखी होगी 


यादों की अलमारी की किसी दराज में 


तुम पढ़ो तो सही...


बोलो ...पढोगी न...?
                                 

                              - अभिषेक शुक्ल