वक्त की बेजान हथेलियों से
रिसती है
एक बेसबब शाम
और तुम समेट लेते हो
तुम्हारा प्रेम
एक फरेबी इंतजार की जद में ,
तब तुम टांक देते हो अपनी आँखें
पगडण्डी के मुहाने पर खड़े
एक सूखे दरख़्त की टहनी से
और दर्ज कर देते हो अपने कान
दूर पड़ी भुरभुरी रेत पर
किसी आदिम पदचाप के फीकेपन
को सुनने के लिए,
सुर्ख पीले पंखों वाली चिड़िया
अमलतास के होठों पर रख
अपना चुम्बन
ठहरी किसी नदी को देख
उदास हो जाती है,
दूर पश्चिम की ओर से
जुगनुओं की एक लम्बी फ़ौज
अपनी मुट्ठियों में रौशनी कैदकर
लौट आती है
रात के अनजान सफ़र के लिए,
उसी सूखे दरख़्त ने
सहेज कर रखा
छाँव का एक शीतल टुकड़ा
हवा में उछाल दिया,
पिछली रात का जागा हुआ समन्दर
आज प्यासा ही सो जाएगा
एक फरेबी इंतजार की जद में ...!
- अभिषेक शुक्ल